-जगदीश नेहरा, पूर्व मंत्री हरियाणा-
शासन व्यवस्था है | संसदीय अथवा राष्ट्रपति प्रणाली दोनों ही लोकतंत्र में शामिल है |विश्व के 21 देशों में राजतंत्र है तो पांच देशों में साम्यवाद है | प्रत्यक्ष रूप से राजतन्त्र में चुनाव की व्यवस्था नही होती,किन्तु यहाँ भी शासन के निर्देशानुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के चुनाव होते रहते हैं | रही बात साम्यवादी व्यवस्था की तो वहां साम्यवादी नियम कायदों पर आधारित एक पार्टी में भी उपयुक्त प्रतिनिधि के लिए चुनाव होते हैं | कुल मिलाकर ऐसा कोई देश नही जहाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से चुनावी प्रक्रिया नहीं चलती |
चुनावी प्रक्रिया की भिन्नता के साथ ही चुनाव अवधि में भी अन्तर है
| अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव चार साल बाद होता है, तो भारत में संसद अथवा राज्यों
की विधानसभाएं पांच वर्षों के लिए चुनी जाती हैं | चुनाव चाहे 4 साल बाद, 5 साल बाद,अथवा
6 साल बाद हो इससे अधिक अंतर नही पड़ता, किन्तु जैसे भारत वर्ष में 5वर्ष के लिए चुनाव
होने के बावजूद कुछ समय के बाद ही, यहाँ तक की 2 महीने पश्चात ही लोकसभा अथवा विधानसभाओं
के भंग होने की स्थिति में अथवा कोई पद रिक्त हो जाने पर जो चुनाव हो जाते है, उनपर
नियंत्रण लगाना अनिवार्य हो गया है |
भारत में लोकसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं के अतिरिक्त स्थानीय निकायों
के चुनाव भी समय-समय पर होते रहते हैं तथा देश के किसी-किसी कोने में हर समय चुनावी
प्रक्रिया चलती रहती है |
चुनाव करवाने के लिए चुनाव आयोग तथा सरकारी तन्त्र को काफी प्रबंध
करने पड़ते हैं, यह काम बहुत पहले आरंभ हो जाता है | चुनावी प्रबंध
के चलते सरकारी तन्त्र का ध्यान केवल चुनावों की ओर हो जाता है और जनता के काम कुप्रभावित होते हैं | राजनेता भी जनहित के कामों की बजाय लोक-लुभावन नारों का सहारा लेकर तथा हर हथकंडा अपना कर चुनाव जीतने का जुगाड़ बैठाने में लगे रहते हैं | हमारे यहाँ चुनाव के समय जिन अलोकतांत्रिक साधनों का सहारा लिया जाता है, वे किसी से छिपे नही हैं | सरकार का अमूल्य समय तो बर्बाद होता ही है, इसके साथ ही सरकारी धन भी काफी मात्रा में खर्च हो जाता है | बार-बार के चुनावों में यह प्रक्रिया दोहराई जाती है | दूसरी और चुनावों की पवित्रता कायम नही रह पाती तथा चुनाव लड़ने व जीतने वाले व्यक्ति चुनाव में खर्च किये गये धन को किसी न किसी प्रकार से अर्जित करने का प्रयास करते हैं, इससे जहां हमारे चुने गये जनप्रतिनिधि अपना दायित्व ठीक ढंग से नही निभा पाते वहीं भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलने लगता है | तात्पर्य है कि देश का जो धन विकास कार्यों पर खर्च होना चाहिए वह चुनावों पर खर्च हो जाता है | विश्व के अन्य देशों में भी इस प्रकार की चुनावी विकृतियां हैं , किन्तु सुदृढ लोकतंत्र होने के बावजूद भारत में चुनावी कमियां काफी अधिक हैं ,जिन्हें सुधारे जाने की अत्यंत आवश्यकता है |
के चलते सरकारी तन्त्र का ध्यान केवल चुनावों की ओर हो जाता है और जनता के काम कुप्रभावित होते हैं | राजनेता भी जनहित के कामों की बजाय लोक-लुभावन नारों का सहारा लेकर तथा हर हथकंडा अपना कर चुनाव जीतने का जुगाड़ बैठाने में लगे रहते हैं | हमारे यहाँ चुनाव के समय जिन अलोकतांत्रिक साधनों का सहारा लिया जाता है, वे किसी से छिपे नही हैं | सरकार का अमूल्य समय तो बर्बाद होता ही है, इसके साथ ही सरकारी धन भी काफी मात्रा में खर्च हो जाता है | बार-बार के चुनावों में यह प्रक्रिया दोहराई जाती है | दूसरी और चुनावों की पवित्रता कायम नही रह पाती तथा चुनाव लड़ने व जीतने वाले व्यक्ति चुनाव में खर्च किये गये धन को किसी न किसी प्रकार से अर्जित करने का प्रयास करते हैं, इससे जहां हमारे चुने गये जनप्रतिनिधि अपना दायित्व ठीक ढंग से नही निभा पाते वहीं भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलने लगता है | तात्पर्य है कि देश का जो धन विकास कार्यों पर खर्च होना चाहिए वह चुनावों पर खर्च हो जाता है | विश्व के अन्य देशों में भी इस प्रकार की चुनावी विकृतियां हैं , किन्तु सुदृढ लोकतंत्र होने के बावजूद भारत में चुनावी कमियां काफी अधिक हैं ,जिन्हें सुधारे जाने की अत्यंत आवश्यकता है |
मेरे
विचार में एक बार चुने गये जन प्रतिनिधि को कम से कम 6 वर्षों तक काम करने का मौका
मिलना चाहिए, अर्थात चुनाव 6 सालों के अंतराल में होने चाहिए | इसके लिए भी संसद से
लेकर स्थानीय निकायों तक के चुनावों के लिए लगभग 2 महीने निर्धारित किये जाने चाहिए,
अर्थात सभी प्रकार के चुनाव एक साथ इस अवधि में करवा लिए जायें | भारत की भौगोलिक भिन्नता
व मौसम को देखते हुए इसके लिए फरवरी और मार्च के महीने ठीक हैं | एक बार चुनावी प्रक्रिया
सम्पन हो जाने के बाद फिर 6 सालों तक कोई चुनाव नही होना चाहिए , इससे जहां जनप्रतिनिधि
पूरे मनोयोग से जनहित के काम कर पायेंगे वहीं
सरकारी तन्त्र भी अपना काम बिना व्यवधान के काम कर पाएगा और जो खर्चा बचेगा, उससे विकास
के काम हो सकेंगे, प्रश्न उठता है कि स्पष्ट बहुमत न मिलने अथवा जनप्रतिनिधि के किसी
रिक्त हुए पद के लिए क्या किया जाए ? मेरे विचार में स्पष्ट बहुमत न मिलने पर विधायिका
को भंग करने के स्थान पर भिन्न-भिन्न दलों को आपसी तालमेल से चुनावों से बचाने के प्रयास
करने चाहिए तब तक राष्ट्रपति शासन जैसे उपायों से काम चलाया जा सकता है |
किसी चुने गये जनप्रतिनिधि के त्याग पत्र देने अथवा मृत्यु के बाद खाली होने वाले पदों को भरने के लिए राष्ट्रपति अथवा राज्यपालों द्वारा निर्धारित मापदंडो के अनुसार उसी प्रकार मनोनयन हो सकता है, जिस प्रकार भारत का राष्ट्रपति देश के लिए विशेष कार्य करने वाले तथा असधारण उपलब्धियां प्राप्त करने वाले 12 सदस्यों को राज्यसभा के लिए नामांकित करता है | विवादों से बचने के लिए सभी दलों की सहमति से इस सम्बन्ध में नियम व योग्यताएं निर्धारित करके निष्पक्ष मनोनयन किया जा सकता है अथवा कम संख्या में रिक्त होने वाले पदों को आगामी चुनावों तक खाली भी रखा जा सकता है | चाहे जो भी हो किन्तु बार- बार होने वाले चुनावों को नियंत्रित किया जाना अति आवश्यक है , ताकि चुनावों में व्यर्थ जाने वाले समय तथा धन का विकास व जनकल्याण के कामों हेतु सदुपयोग हो सके |
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