23 December 2023

डबवाली अग्निकांड: 'माय-बाप' ने नहीं, ‘कानून की देवी’ ने रखा 'सिर' पर 'हाथ'



मौत का बुलावा साबित हुआ था डीएवी स्कूल का वार्षिक समारोह, 442 चढ़े थे आग की भेंट

इकबाल सिंह शांत/93178-26100

डबवाली: 23 दिसंबर 1995 को घटित डबवाली अग्निकांड की त्रासदी 28 वर्ष बाद भी ज़हन में आते ही दिलों-दिमाग सिहर जाता है। एक ऐसा खौफनाक हादसा जिसमें महज़ चंद मिंटों की आग अपने पीछे सदियों के लिए दर्दनाक संताप छोड़ गई। दुनिया इस हादसे को सूरज-चंद के वजूद तक भूल नहीं पायेगी, डबवाली के शरीर पर आग के जख्म सदा नासूर के रूप में ताज़ा रहेंगे। अग्निकांड ने 1995 में करीब 41-42 हज़ार की आबादी वाले डबवाली में चंद मिनटों मे एक फीसदी आबादी को कम कर दिया था।



 हर तीसरे परिवार को प्रभावित किया

त्रासदी की आग ने डबवाली के लगभग हर तीसरे परिवार को प्रभावित किया। ‘काले’ व ‘बुरे’ शब्दों में कहा जाये तो ‘442 जनों के लिए मौत का बुलावा साबित हुआ था राजीव मैरिज पैलेस में आयोजित डीएवी स्कूल का वार्षिक समारोह।‘

 समारोह के दौरान  1 बजकर 47 मिनट पर मेन गेट के पास शार्ट-सर्किट हुआ था। जिसकी चिंगारी सिंथैटिक कपड़े से बने पंडाल पर जा गिरी। चंद सैकेंडों में ही इस चिंगारी ने एक विकराल रूप धारण कर लिया और पंडाल को अपनी लपेट में ले लिया। पंडाल में बैठे लोगों में जबरदस्त भगदड़ मच गई।

समारोह में मौजूद करीब 15 सौ लोगों में से 442 लोग हादसे की आग में झुलस कर काल का ग्रास बन गये। मृतकों में 258 बच्चे, 150 महिलाएं व 44 पुरुष शामिल थे। 150 सौ से ज्यादा गंभीर रूप से घायल हुए थे। जिनमें से 22 दिव्यांग हो गये। बहुतेरे अपने चेहरा, हाथ, कान, नाक व टांगे तक गुआ दी, उनके लिए हादसे के नासूर बने जख्म उनके लिए पल-पल का दर्द बन चुके हैं। हादसे में बड़ी संख्या में मौतों के कारण बड़ी संख्या में परिवारों पर वजूद तक का संकट आ गया था। त्रासदी में कसूर भले किसी का भी रहा हो, उसका हिसाब कानूनी अख्तियारों ने वक्त-दर-वक्त किया। इसके बावजूद हादसे की आग से समाज व सरकारों ने सबक नहीं लिया।




कभी नीतियाँ आड़े आई, तो कहीं गैर-सुंदर चेहरा बने मुश्किल

दुखांत है कि मुश्किलों भरी आधी-अधूरी जिंदगी में अग्नि पीड़ितों को शारीरिक दिक्कतों के अतिरिक्त कानूनी लड़ाई के लिए दोहरा संघर्ष करना पड़ा। गत 28 वर्षों में तत्कालीन भजन लाल सरकार द्वारा प्रारंभिक इलाज व अंतरिम राहत के बाद देश-समाज की ‘जिंदा’ माय-बाप अर्थात केंद्र अथवा राज्य सरकार किसी स्तर पर अग्नि पीड़ितों के साथ खड़ी नजर नहीं आई। पीड़ितों को डबवाली अग्नि पीड़ित संघ व अधिवक्ता अंजू अरोड़ा की करीब 18 वर्षों की लंबी जद्दोजहद में कानून की देवी (पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय) ने पीड़ितों को इंसाफ दिया व डीएवी संस्था व हरियाणा सरकार से लगभग 46 करोड़ रुपये का मुआवजा का फैसला दिया। मुआवजे से आर्थिक सहारा तो मिला, परन्तु दिव्यांग हुए ज़रूरतमंद पीड़ितों को सरकार से रोजगार वाले हाथ व पांव नहीं मिल सके। उनके रोजगार के लिए कभी सरकारी नीतियाँ आड़े आई, तो कहीं पढ़े-लिखे अग्निपीड़ितों का सौ फीसदी झुलसा गैर-सुंदर चेहरा नौकरी में मुश्किल बन गया।



जगह नहीं बना सका वोटों का ‘दिव्यांग’ वजन 

राज्य सरकार के असहयोग के चलते पीड़ितों को इलाज के लिए बार-बार उच्च न्यायालय का रुख करना पड़ा। हादसे के बाद बर्न यूनिट जैसे सरकारी आज तक वायदे वफा नहीं हुए। अग्नि पीड़ितों के मुताबिक शायद सरकार के कोटे में भावनाए/मुश्किलों से ज्यादा वोट बैंक की कद्र है। तभी उनके वोटों का ‘दिव्यांग’ वजन सरकार के मन में जगह नहीं बना सका। इसी कारण पौने तीन दशक के बाद आज तक अग्निकांड स्मारक को राज्य-स्तरीय दर्जा नहीं मिल सका। ताकि आगामी पीढियां स्मारक के जरिये अग्नि हादसों के प्रति जागरूक व चौकस हो सकें।


समय-समय पर करवाया साथ खड़े का अहसास

डबवाली क्षेत्र से प्रदेश राजनीति की स्थापित हस्तियों ने समय-समय पर अपने सामर्थ्य से अग्निकांड स्मारक व पीड़ितों के साथ खड़े का अहसास करवाया, परन्तु प्रदेश की ‘माय-बाप’ असल राज्य सरकार नीतिगत तौर पर कभी अग्नि पीड़ितों के साथ खड़ी नजर नहीं आई।


हादसे की सबसे 'प्रेरणास्पद' बात

खौफनाक अग्निकांड में भी कुछ प्रेरणास्पद पल घटित हुए। हादसे के बाद समूचा डबवाली क्षेत्र एक साथ खड़ा नजर आया, उस समय शहर भर में यहाँ के पेट्रोल पंपों पर घायलों को बड़े अस्पतालों में ले जाने को डीजल-पेट्रोल मुफ्त कर दिया गया था, वहीं टैक्सी गाड़ियाँ भी मुफ्त में चंडीगढ़, दिल्ली व लुधियाना तक घायलों को लेकर गई। हर कोई अपनी निजी जिंदगी को दरकिनार करके हफ्तों तक पीड़ित के इलाज के लिए उनके साथ खड़ा रहा। उस हादसे के मातमी माहौल से उभरने में शहर की आम जिंदगी को पूरा एक दशक लगा था।

 

(सभी चित्र साभार)



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